रश्मिरथी : आज़ाद भारत का पहला दलित साहित्य
रश्मिरथी सही मायनों में आज़ाद भारत का पहला दलित साहित्य है। जिसने समाज में दलितों के उपेक्षा को दर्शाया है।
रश्मिरथी एक शानदार किताब है। इसे सभी को पढ़ना चाहिए।
रश्मिरथी में कर्ण के मन में उठने वाली पीड़ा को बहुत ही मार्मिक रूप उद्धृत किया है। उसमे की कुछ पंक्तियां -

"हाय, कर्ण, तू क्यों जन्मा था? जन्मा तो क्यों वीर हुआ?
कवच और कुण्डल-भूषित भी तेरा अधम शरीर हुआ।
धेस जाये वह देश अतल में, गुण की जहाँ नहीं पहचान,
जाति-गोत्र के बल से ही आदर पाते हैं जहाँ सुजान।
“नहीं पूछता है कोई, तुम व्रती, वीर या दानी हो?
सभी पूछते मात्र यही, तुम किस कुल के अभिमानी हो?
मगर, मनुज क्या करे? जन्म लेना तो उसके हाथ नहीं,
चुनना जाति और कुल अपने बस की तो है बात नहीं।
“मैं कहता हूँ, अगर विधाता नर को मुट्ठी में भरकर,
कहीं छींट दें ब्रह्मलोक से ही नीचे भूमण्डल पर।
तो भी विविध जातियों में ही मनुज यहाँ आ सकता है,
नीचे हैं क्यारियाँ बनीं, तो बीज कहाँ जा सकता है।
कौन जन्म लेता किस कुल में? आकस्मिक ही है यह बात,
छोटे कुल पर, किन्तु, यहाँ होते तब भी कितने आघात!
हाय, जाति छोटी है, तो फिर सभी हमारे गुण छोटे, जाति बड़ी, तो बड़े बनें वे, रहें लाख चाहे खोटे।"
रामधारीसिंह दिनकर, श्री कृष्ण के कुटिल प्रवनचनों को ही महाभारत का कारण मानते हैं। अगर सिर्फ 5 गांव की बातचीत थी तो वे कुल - समाज - विश्व शांति के लिए पांडवों को उसे छोड़ने के लिए कह सकते थे। और लाखों लोगों - परिवार - संबंधियों को बचा सकते थे। इसे उनकी गरिमा पहले की तुलना में दुगुनी हो जाती। और क्या पता श्रीकृष्ण को शांति पहला मरणोपरांत Nobel Price मिल जाता।
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